हरियाणा का प्राचीन इतिहास (Ancient History of Haryana)

भारत के इतिहास के समान ही हरियाणा के इतिहास को तीन भागो में बाटा गया है। इस भाग में हम हरियाणा का प्राचीन इतिहास (Ancient History of Haryana) के बारे में बात करेंगे, जो की परीक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

एक विशिष्ट ऐतिहासिक और सांस्कृतिक इकाई के रूप में, हरियाणा को प्राचीन काल से मान्यता प्राप्त है। यह राज्य आदिकाल से ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता की धुरी रहा है। मनु के अनुसार इस प्रदेश का अस्तित्व देवताओं द्वारा हुआ था, इसलिए दसे ‘ब्रह्मावर्त’ का नाम दिया गया था।

इस राज्य को ब्रह्मावर्त तथा ब्रह्मर्षि प्रदेश के अतिरिक्त ‘ब्रह्मा की उत्तरवेदी’ के नाम से भी पुकारा गया है। इस राज्य को आदि सृष्टि का जन्म-स्थान भी माना जाता है। यह भी मान्यता है कि मानव जाति की उत्पत्ति जिन वैवस्तु मनु से हुई, वे इसी प्रदेश के राजा थे। “अवन्ति सुन्दरी कथा” में इन्हें स्थाण्वीश्वर निवासी कहा गया है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार आद्यैतिहासिक कालीन-प्राग्हड़प्पा, हड़प्पा, परवर्ती हड़प्पा आदि अनेक संस्कृतियों के अनेक प्रमाण हरियाणा के वणावली, सीसवाल, कुणाल, मिर्जापुर, दौलतपुर और भगवानपुरा आदि स्थानों के उत्खननों से प्राप्त हुए हैं।

महाभारत-काल (Mahabharata period)

महाभारत-काल से शताब्दियों पूर्व आर्यवंशी कुरुओं ने यहीं पर कपिल पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्होंने आदिरूपा माँ सरस्वती के 48 कोस के को पहले-पहल कृषि योग्य बनाया । इसलिए  48 कोस की कृषि-योग्य नाम पर कुरुक्षेत्र कहा गया जो आज तक भी भारतीय संस्कृति का पवित्र प्रदेश बहत बाद तक सरस्वती और गंगा के बीच के बहुत बड़े भ-भाग को रखा। महाभारत का विश्व-प्रसिद्ध युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया।

  • महर्षि वेद व्यास ने लगभग 900BC-सरस्वती नदी के तट पर ‘महाकाव्य’ की रचना की जीसे हम भगवत गीता के नाम से जानते है।
  • हरियाणा को महाभारत में बहुधान्क्य के रूप में उल्लेख किया गया है।
  • बहुधान्क्य का अर्थ है भरपूर मात्रा में अनाज और प्रचुर धन की भूमि।
  • पिहोवा, कुरुक्षेत्र, तिलपाल, पानीपत में साइटों पर कविता, मूर्तियां, आभूषण की खोज महाभारत युद्ध के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।

आर्यकाल (Arya period)

आर्यकाल से ही यहाँ के जनमानस ने गण-परम्परा को बेहद प्यार किया था। गांव के एक समूह को वे जनपद कहते थे । जनपद की शासन-व्यवस्था ग्रामों से चुने गये प्रतिनिधि संभालते थे। इसी प्रकार कई जनपद मिलकर अपना एक ‘गण’ स्थापित करते थे। ‘गण’ एक सुव्यवस्थित राजनैतिक इकाई का रूप लेता था। ‘गणसभा’ की स्थापना जनपदों द्वारा भेजे गये सदस्यों से सम्पन्न होती थी। यह भी देखा गया है कि इस तरह के कई ‘गण’ मिलकर अपना एक संघ बनाया करते थे, जिसे गण-संघ के रूप में जाना जाता था। यौधेय काल में इसी तरह कई गणराज्यों के संगठन से एक विशाल ‘गण-संघ’ बनाया गया था जो शतद् से लेकर गंगा तक के भूभाग पर राज्य करता था।

गणराज्य

अर्जुनायन गणराज्य:     अर्जुनायन गणरत्य हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जिले में स्थित था। इसका कुछ क्षेत्र राजस्थान में फैला हुआ था । डा० अल्तेकर के मतानुसार जिन मुद्राओं पर ‘द्वि’ शब्द अंकित था वह यौधेयों और अर्जुनायनों के विलय का घोसक था।

आर्जुनायन गणराज्य आधनिक भारतपुर और अलवर क्षेत्रों पर आधारित था तथा मालव गणराज्य पहले पंजाब के आधुनिक मालवा क्षेत्र में स्थित था। परन्तु इण्डोग्रीक आक्रमणों के कारण मालव राजपूताना क्षेत्र  में चले गये।  मालवनगर नामक प्राचीन स्थान उनकी राजधानी थी।

बौद्धकालीन साहित्य:     उत्तर भारत की बौद्धकालीन राजनैतिक व्यवस्था पर जो नई खोजें हुईं उनकी वजह से इतिहास का एक अंधकारमय अध्याय प्रकाश में आया है। बौद्धकाल के आरम्भ में सोलह महाजनपदों की चर्चा बौद्ध साहित्य में विस्तारपूर्वक हुई है। इनमें कुरु, पांचाल, सूरसेन, अवंती. वज्जी, कौशल, अंग, मल्ल, चैत्य, वत्स, मगध, मत्स्य, अस्सक, गंधार, कम्बोज और काशी का उल्लेख हुआ है। आधुनिक हरियाणा के भाग उस समय कुरु और पांचाल महाजनपदों के भाग थे।

यौधेय काल:     यौधेय काल में यह प्रदेश ‘बहुधान्यक’ प्रदेश के नाम से जाना जाता था। मूर्तिकला, हस्तकला और ललित कलाओं के लिए यौधेय पूरे देश में प्रसिद्ध थे। रोहतक के ढोलवादक धुर उज्जैन तक पहुँचकर प्रसिद्धि प्राप्त करते थे। मल्लयुद्ध और युद्ध-कौशल में उनका जवाब नहीं था। वे जहाँ विकट योद्धा थे वही कुसल  किसान भी थे। यह गर्व की बात है कि पूरे एक हजार वर्ष तक इस गणराज्य ने भारत के इतिहास में अपूर्व प्रसिद्धि प्राप्त की और अपने प्रदेश को गणतन्त्रात्मक राजनैतिक व्यवस्था के अधीन चरम विकास तक पहुंचाया।

प्राचीन सिक्कों, मोहरों, ठप्पों, मुद्राओं, शिलालेखों तथा अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पता चलता है कि यौधेय शक्ति का उदय ईसा पूर्व की चौथी शताब्दी में हुआ और उसने पूर एक हजार वर्ष तक इस भू-भाग पर अपना आधिपत्य बनाये रखा।

मौर्यकाल:     मौर्यकाल में भी यौधेय पूरी तरह शक्ति सम्पन्न रहे और उनका बहुधान्यक प्रदेश अपनी समृद्धि के लिए भारत में प्रसिद्ध रहा जबकि देश के अन्य गण लगभग ध्वस्त हो चुके थे।

गुप्तकाल (Gupta period)

गुप्तकाल में आकर यौधेयों का गुप्त सम्राटों से संघर्ष चला। पहले के गुप्त शासकों ने यौधेयों को केवल उनकी प्रभुसत्ता स्वीकारने तक को राजी करने का प्रयास किया किन्तु यौधेय जिन्हें अपने गणराज्य पर गर्व था किसी भी रूप में साम्राज्यवादी प्रभुत्व को स्वीकारने को तैयार नहीं हुए। परन्तु यह स्थिति चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में बदल गई । सम्राट विक्रमादित्य ने यौधेय को हराने का संकल्प किया और एक धारणा के अनुसार दोनों शक्तियों में लगभग चौथाई शताब्दी तक घोर संघर्ष चला और अंत में उस विशाल साम्राज्यवादी शक्ति ने देश की सम्भवतः अन्तिम गण-शक्ति को ध्वस्त कर दिया।

वर्द्धन वंश (हर्षकाल) Vardhan Dynasty (Harsha period)

हर्षकाल में भी यह पूरा प्रदेश अनेक जनपदों में बंटा था। इस काल में जनपदों और गणों की यह परम्परा यहां राजनैतिक व्यवस्था का आधार बनी रही। राजा हर्षवर्धन के पूर्वजों ने श्रीकंठ जनपद से ही अपनी शक्ति संगठित की थी। हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन ने स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) में बैठकर ही एक शक्तिशाली साम्राज्य की शक्ति को बढ़ाया था। उन्होंने हूणों की बढ़ती शक्ति पर जोरदार प्रहार करके उन्हें भारत से भगा दिया। गुप्तों और गांधारों की शक्ति नष्ट करके वर्द्धनों ने उत्तर भारत के सभी भू-भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर वर्द्धन वंश का सबसे प्रतापी शासक हर्षवर्धन था, जिन्होंने एक विशाल साम्राज्य की की। हरियाणा प्रदेश का वह एक गौरवमय युग था जबकि स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) ज्ञान शिल्प और कलाओं का प्रमुख केन्द्र बन गया था। चीनी भिक्षु हेनसांग ने हर्ष की स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) के वैभव और समृद्धि का सुन्दर चित्रण किया है। बाण भटने अपने ग्रन्थ ‘हर्षचरित’  में उस समय के हरियाणा प्रदेश के जन-जीवन और सांस्कृतिक का व्यापक वर्णन किया है।

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