जैव विकास तथा जैव विकास के सिद्धांत (Bio evolution and theories of Bio evolution)

थियोडोसियस डोबहास्की (Theodosius Dobahsky) के अनुसार जीव विज्ञान (Biology) का अर्थ क्रमिक विकास में है। जैव विकास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होने वाला आनुवंशिक (Genetic) परिवर्तन है। पृथ्वी के प्रारंभ से ही निम्नकोटि के जीवों का क्रमिक परिवर्तनों द्वारा निरंतर अधिकाधिक जटिल जीवों की उत्पत्ति वास्तविक रूप से जैव विकास ही है। जैव विकास के अनुसार पृथ्वी पर पहले की पूर्वज जातियों के जैव विकास के द्वारा ही, नई-नई जातियां उत्पन्न हुई और हो रही हैं। जीवन की उत्पत्ति से संबंधित सबसे प्राचीन परिकल्पना, स्वतः उत्पादन की है, जबकि आधुनिक परिकल्पना प्रकृतिवाद की है। लैमार्क, डार्विन, वैलेस, डी-ब्रिज आदि ने भी जैव विकास के संबंधित  अनेक परिकल्पनाओं को प्रस्तुत किया।

जैव विकास के सिद्धांत

जैव विकास से संबंधित अनेक मत व सिद्धांत प्रचलित हैं। जैव विकास के सिद्धांत को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है

  • लैमार्कवाद (Lamarckism)
  • डार्विनवाद (Darwinism)
  • नव-डार्विनवाद (Neo-Darwinism)
  • पुनरावर्तन सिद्धांत (Recapitulation theory)

लैमार्कवाद (Lamarckism)

“जीवों एवं उनके अंगों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। जिन पर वातावरणीय परिवर्तनों का सीधा प्रभाव पड़ता है। अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होता है।”

  • लैमार्क का यह सिद्धांत 1809 में उनकी पुस्तक ‘फिलासफी जुलोजिक’ (Philosophie Zoologique) में प्रकाशित हुआ था।
  • लैमार्कवाद को ‘अंगों के कम या अधिक उपयोग का सिद्धांत’ भी कहा जाता है।
  • लैमार्कवाद के अनुसार जीवों की संरचना, कायिकी, उनके व्यवहार पर वातावरण में परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है।
  • लैमार्क के उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धांत’ के अनुसार जन्तुओं के उपार्जित लक्षण वंशगत होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होते हैं।

डार्विनवाद (Darwinism) 

‘प्राकृतिक चुनाव द्वारा प्राणियों का विकास’ (Origin of Species by Natural Selection 1836)  –  इस सिद्धांत के अनुसार ‘सभी जीवों में संतानोपत्ति की अधिक से अधिक क्षमता पायी जाती है। प्रत्येक जीव में अत्याधिक प्रजनन दर के कारण जीवों को अपने अस्तित्व हेतु संघर्ष करना पड़ता है। ये संघर्ष समजातीय, अन्तरजातीय तथा पर्यावरणीय होते हैं ।

  • दो सजातीय जीव आपस में बिल्कुल समान नहीं होते हैं।
  • ऐसी विभिन्नताएं इन्हें अपने जनकों से वंशानुक्रम में मिलती हैं।
  • डार्विनवाद को प्राकृतिक चयनवाद (Theory of natural selection) भी कहा जाता है।

नव-डार्विनवाद (Neo-Darwinism) 

इसे उत्परिवर्तन सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है जिसे हॉलैण्ड के यूगोडीब्रिज ने 1901 ई. में प्रस्तुत किया था। नव-डार्विनवाद को आधुनिक संश्लेषिक परिकल्पना (Modern Synthetic theory) भी कहते हैं। यह निम्नलिखित प्राक्रमों की पारस्परिक क्रियाओं का परिणाम है –

  • जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation)
  • आनुवांशिक पुनर्योजन (Genetic recombination)
  • गुणसूत्रों की संरचना एवं संख्या में परिवर्तन द्वारा विभिन्नताएं
  • पृथक्करण (Isolation)

पुनरावर्तन सिद्धांत (Recapitulation theory) 

अर्नेस्ट हैकल इसे जाति-आवर्तन सिद्धांत भी कहते हैं जिसकी प्रमुख विशेषता है कि किसी जीव की भ्रूणीय अवस्थाएं उनके पूर्वजों की वयस्क अवस्थाओं के समान होती हैं।

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