पंचायती राज का विकास

भारत में पंचायतों का गठन गांधीजी की संकल्पना पर आधारित है जिसमें उन्होंने राज्य में सबसे निचले स्तर पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए त्रिस्तरीय पंचायतों के गठन की बात कही थी|

बलवंत राय मेहता समिति 

वर्ष 1957 में भारत  सरकार द्वारा बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा 1953 के कार्यों की समीक्षा व उनके बेहतर ढंग से कार्य करने के लिए इस समिति का गठन किया गया , इस समिति ने Nov. 1957 में अपनी रिपोर्ट पेश की और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिश की जिसे पंचायती राज के रूप में जाना गया जिसकी प्रमुख सिफारिशें निम्न थी —

  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना तथा  ये तीनों स्तर आपस में अप्रत्यक्ष चुनाव के गठन के द्वारा जुड़े होने चाहिएँ |
    1. गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत
    2. ब्लाक स्तर पर पंचायत समिति
    3. जिला स्तर पर जिला परिषद्
  • ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होनी चाहिएँ जबकि पंचायत समिति व जिला परिषद् का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने हुए सदस्यों द्वारा किया जाना चाहिएँ |
  • स्थानीय स्तर पर सभी योजना व विकास कार्य इन निकायों को दिए जाने चाहिएँ |
  • जिला परिषद् का अध्यक्ष जिलाधिकारी को होना चाहिएँ |

समिति की इन सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा 1958 में स्वीकार किया गया | 2 Oct. 1959 को नागौर जिला (जयपुर – राजस्थान) देश का पहला राज्य बना जिसने सर्वप्रथम पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया | इसके बाद आंध्र प्रदेश (1959) ने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया |

अशोक मेहता समिति 

वर्ष 1977 में जनता पार्टी सरकार ने पंचायती राजव्यवस्था में सुधार हेतु एक समिति का गठन किया जिसने अगस्त 1978 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसकी प्रमुख निम्न सिफारिशें है —

  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति का द्विस्तरीय पंचायती राज पद्धति में परिवर्तन –
    1. जिला परिषद् जिला स्तर पर
    2. इससे नीचे मंडल पंचायत में 15000 से 20000 जनसँख्या वाले गाँवों के समूह होने चाहिएँ  |
  • राज्य स्तर से नीचे शक्तियों के विकेंद्रीकरण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिएँ |
  •  राजनीतिक पार्टियों की पंचायती चुनावों में अधिकारिक भागीदारी हो |
  • पंचायती राज संस्थाओं के पास क्षेत्रीय स्तर पर कराधान की अनिवार्य शक्ति हो |
  • न्याय पंचायत को विकास पंचायत से अलग निकायों के रूप में रखा जाना चाहिएँ एव इसका सभापति एक योग्य न्यायाधीश को नियुक्त किया जाना चाहिएँ |
  •  मुख्य चुनाव आयुक्त के परामर्श से राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा चुनाव कराए जाने चाहियं |
  •  जनसँख्या के आधार पर अनुसूचित जाति (SC) व अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए स्थानों का आरक्षण |
GVK राव समिति 

वर्ष 1985 में योजना आयोग (Planning Commission) द्वारा GVK की अध्यक्षता में ग्रामीण विकास व् गरीबी उन्मूलन की समीक्षा हेतु इस समिति का गठन किया गया | यह समिति इस निर्णय पर पहुंची कि विकास की प्रक्रिया नौकरशाही से युक्त होकर पंचायती राज से अलग हो गयी है | जिसने निम्न सिफारिशें पेश की —

  • जिला व् स्थानीय स्तर पर पंचायती संस्थाओ को विकास कार्यों के नियोजन (Planning) , क्रियान्यवन (Application) व निगरानी (Monitoring) में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की जाए |
  •  एक जिला विकास आयुक्त (District Development Commissinor) के पद का सृजन किया जाए , जिसे जिला स्तर पर सभी विकास कार्यों का प्रभारी होना चाहिएँ |
 L.M सिंघवी समिति 

वर्ष 1986 में राजीव गाँधी (कांग्रेस) सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं के विकास के लिए L.M सिंघवी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसकी निम्न सिफारिशें थी —

  • पंचायती राज संस्थाओ को संवैधानिक मान्यता दी जाए और इससे भारतीय संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाए|
  • गाँवों के समूह के लिए न्याय पंचायतो की स्थापना |
  • पंचायतों को वित्त उपलब्ध कराने के लिए अधिक आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराएं जाए |
  • पंचायतों के चुनाव , विघटन एवं उनके कार्यों से संबंधित विवाद निस्तारण के लिए न्यायिक अधिकरणों की स्थपाना की जानी चाहिएँ |
थुंगन समिति 

वर्ष 1988 में संसद की सलाहकार समिति की एक उप-समिति थुंगन की अध्यक्षता में गठित की गयी , इस समिति ने पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के उद्देश्य से कई सुझाव दिए

  • पंचायती राज संस्थाओ को संवैधानिक मान्यता दी जाए |
  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति  का गठन , जिसका 5 वर्ष का निश्चित कार्यकाल होना चाहिएँ |
  • जिला परिषद् को पंचायती राज व्यवस्था का केंद्र होना चाहिएँ तथा जिले में निर्माण व् विकास योजना की संस्था के रूप में कार्य करना चाहिएँ |
  • पंचायतों में तीन स्तर पर जनसँख्या के अनुसार अनुसूचित जाति (SC) व अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षण तथा  महिलाओं के लिए भी आरक्षण होना चाहिएँ |
  • प्रत्येक राज्य में वित्त आयोग का गठन जो पंचायती राज संस्थाओ को वित्त वितरण के लिए विधियाँ तय करेगा |
  • जिला परिषद् का मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिले का जिला अधिकारी होना चाहिएँ |
गाडगिल समिति 

वर्ष 1988 में V.N गाडगिल की अध्यक्षता में एक नीति व कार्यक्रम समिति का गठन किया गया , जिसका कार्य इस विषय पर विचार करना था की पंचायती राजसंस्थाओ को प्रभावकारी कैसे बनाया जाए | जिसके प्रमुख सिफ़ारिशें थी

  • पंचायती राज संस्थाओ को संवैधानिक मान्यता दी जाए |
  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति  का गठन , जिसका 5 वर्ष का निश्चित कार्यकाल होना चाहिएँ |
  • त्रिस्तरीय पंचायतों के तीनों स्तर पर जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन किया जाना चाहिएँ |
  • पंचायतों में तीन स्तर पर जनसँख्या के अनुसार अनुसूचित जाति (SC) व अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षण तथा  महिलाओं के लिए भी आरक्षण होना चाहिएँ |
  • पंचायतों के लिए वित्त आयोग का गठन |
  • पंचायतों को कर लगाने व वसूलने का अधिकार होना चाहिएँ |

 

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