भूमध्यसागर के दक्षिण में स्थित अफ्रीकी महादेश को अंध महादेश (Dark Continent) के नाम से भी जाना जाता था। इसके निवासी काले रंग वाले रूसी (नीग्रो) लोग थे और यह अफ्रीकी महादेश जंगलों एवं पहाड़ों से घिरा हुआ था। यूरोपीय नाविक इसके पश्चिम किनारे से होते हुए सुदूर दक्षिण तक जाते, किन्तु तटवर्ती क्षेत्रों को छोड़कर भीतर जाने का साहस बहुत कम लोगो ने ही किया था। फलत: इसके तटवर्ती क्षेत्रों के नाम गोल्ड कोस्ट, आइयरी कोस्ट, रख गए थे। इन तटवर्ती क्षेत्रों से हजारों की संख्या में अफ्रीकी नौजवान स्त्री-पुरुषों को पकड़कर अमेरिकी महादेश में जानवरों की तरह बेच दिये जाने को भेजा जाता था।
अफ्रीका में पहुँचने वाला पादरी डेविड लिविंगस्टन (स्काटलैंड) था वह वहाँ के लोगों में घुल-मिल गया। उसकी खोज में पत्रकार स्टैनली गया (1817), अफ्रीका पहुंचकर उसने अफ्रीका की अपार संभावनाओं को समझ लिया, तथा वह पुन: यूरोप पहुँच कर ऐसे लोगों की तलाश करने लगा जो उसकी योजनाओं में रूची ले। 1878 में बेल्जियम सम्राट लियोपोल्ड जो एक व्यवसायी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने मध्य अफ्रीका में कांगो नदी के अंचल को विकसित करने का संकल्प लिया।
स्टैनली और लियोपोल्ड ने मिलकर इण्टरनेशनल कॉगो एशोसियेशन नामक संस्था बनायी जो एक कम्पनी थी जिसका सम्बन्ध बेल्जियम के लोगों और सरकार से नहीं था।
स्टैनली 1882 ई में पुन: अफ्रीका पहुँचा और 2 वर्षों के भीतर उसने स्थानीय सरदारों से तरह-तरह के कागजातों पर उनके स्थानीय निशानों के मुहर लगवा लिये और सरदारों ने एसोसियेशन का झंडा लगाना शुरु कर दिया।
अंगोला और मोजम्बिक में पुर्तगाल ने उपनिवेश बना लिये थे, जिसका इंग्लैण्ड समर्थन करता था।
जर्मनी का निर्माता बिस्मार्क अफ्रीका में उपनिवेश स्थापना को मूर्खतापूर्ण मानता था लेकिन उस पर भी उपनिवेश उत्साही लोगों का दाव पड़ा उसने 1885 में अफ्रीका समस्या के हल हेतु अंतर्राष्ट्रीय विचार विमर्श तथा सहमती हेतु एक सम्मेलन बर्लिन में आयोजित किया। बर्लिन सम्मेलन 1885 में दो प्रमुख नीतियाँ निर्धारित की गयी
- कांगो एसोसियसन के अधिकृत इलाकों को अन्तर्राष्ट्रीय तत्वावधान में अंतर्राष्ट्रीय राज्य बनाया जाये।
- एक अन्तर्राष्ट्रीय संहिता बनाया जाय तथा इसके अनुसार ही यूरोपीय शक्तियाँ अफ्रीका में इलाके हासिल करे।
अफ्रीका में यूरोपीय लूट – खसोट:
1885 ई. के बर्लिन सम्मेलन में अफ्रीका में साम्राज्यवादी प्रसार के संदर्भ में कुछ रेखाएँ निर्धारित की गई थी। जिस यूरोपीय देश के अधिकार में तटवर्ती क्षेत्र होगा, उसे उस क्षेत्र के भीतरी इलाकों को अधिकृत करने में प्राथमिकता मिलेगी। अधिकृत क्षेत्र केवल कागज पर ही न हो, नक्शे पर रेखाएँ खीचंकर प्रशासन या सैनिक नियन्त्रण होना चाहिए। मात्र 15 वर्षों में सारे महादेश को यूरोपीय साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने आपस में विभाजित कर लिया, एकमात्र अपवाद इथियोपिया (Ethopia) रह गया तथा कुछ हद तक लाइबेरिया।
- ब्रिटेन का नियन्त्रण : मिस्र, सूडान, केन्या, जिम्बावे, साइजीरिया एवं दक्षिण अफ्रीका पर
- फ्रांस का नियन्त्रण : मोरक्को, अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मेडागास्कर
- पुर्तगाल का नियन्त्रण : अंगोला, मोजाम्बिक
- इटली का नियन्त्रण : लीबिया, इरीट्रीया, 1935 में इथोपिया
- जर्मनी का नियन्त्रण : तंजानिया, नामिबिया
- बेल्जियम का नियन्त्रण : कागो
प्रमुख विवाद एवं घटनाएँ
अडोवा युद्ध
इटली, इथोपिया तथा नील नदी के ऊपरी क्षेत्र को अधिकृत करना चाहता था किन्तु 1896 ई. में अडोवा के युद्ध में इटली, इथियोपिया से पराजित हो गया।
फसोदा संकट:
नील नदी के तलहटी क्षेत्र पर आधिपत्य को लेकर फ्रांस एवं ब्रिटेन के मध्य तनाव। फ्रांस ने संयम से काम लिया तथा जनरल मार्शा को लौट जाने का आदेश दिया।
बोअर युद्ध:
ब्रिटेन केप से काहिरा तक ब्रिटिश अफ्रीका के सपने को साकार करना चाहता था। डच लोग जो केप पर जा कर बस गये थे। 1815 में केप ऑफ गुड होप पर ब्रिटेन का अधिकार हो गया, तो डच लोग अन्यत्र चले गये। अंग्रेज, डच लोगों को बोअर कहते थे। कुछ समय बाद यहाँ हीरे तथा सोने की खाने मिली, 1895 में अंग्रेजों ने डॉ. जेमसन के नेतृत्व में इन पर आक्रमण किया जो विफल रहा। ‘बोअर’ लोगों को पराजित करने में अंग्रेज़ो को 15 वर्ष लग गये।
मोरक्को संकट –
1905 में मोरक्कों को लेकर फ्रांस एवं जर्मनी आमने सामने की स्थिति में आ गये। 1911 में लीबिया पर इटली ने अधिकार कर लिया।