उत्तराखंड में लोक संगीत की समृद्ध परंपरा रही है, जिसमें लगभग सभी प्रकार के वाद्य यंत्र (Musical instrument) बजाएँ जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
- धातु या घन वाद्ययंत्र – मंजीरा, बिणाई, करताल, चिमटा, कांसे की थाली, घुँघरू, खजड़ी, थाली आदि।
- चर्म वाद्ययंत्र – नगाड़ा, ढोल, हुड़की, हुड़का, डोर, साइया, दमाऊं (दमामा), तबला, डफली, आदि।
- तार या तांत वाद्ययंत्र – एकतारा, सारंगी, दो तारा वीणा आदि।
- सुषिर या फूक वाद्ययंत्र – तुरही, रणसिंहा (अंकोरा नागफणी, शंख, मोठंग, अल्गोजा (बांसुरी), मशकबीन आदि।
- अन्य वाद्ययंत्र –गिटार, आरगन, हारमोनियम।
उपरोक्त वाद्ययंत्रों में से वर्तमान में प्रयोग होने वाले कुछ वाद्ययंत्रों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।
बिणाई / मोरछंग
बिणाई लोहे की धातु से निर्मित एक छोटा-सा वाद्ययंत्र है, जिसे सामान्यतः महिलाओं द्वारा बजाया जाता है। बिणाई के दोनों सिरों को दांतों के बीच में दबाकर बजाया जाता है। वर्तमान में बिणाई वाद्य यंत्र विलुप्त (Extinct) होने की कगार पर है।
ढोल
ढोल − ढोल उत्तराखण्ड का पारंपरिक वाद्य यंत्र है, जिसका उपयोग देवताओं के जागर, शादी-विवाह और समस्त मांगलिक कार्यों में किया जाता है। ढोल का निर्माण ताँबे या साल की लकड़ी से किया जाता है, इसकी बाई पुड़ी पर बकरी की पतली खाल और दाई पुड़ी पर बारहसिंगा या भैंस की खाल चढ़ी होती है।
दमाऊं (दमामा) − यह ताँबे या साल की लकड़ी से निर्मित एक प्रमुख वाद्ययंत्र है, जो एक फुट व्यास तथा आठ इंच गहरे कटोरे के समान होता है। इसके मुख पर मोटे चमड़े की पुड़ी (खाल) चढाई जाती है।
Note :
- ढोल उत्तराखंड का राज्य वाद्य यंत्र भी है।
- ढोल और दमाऊँ (दमामा) को साथ-साथ बजाया जाता है।
हुडुक या हुड़की
कुमाऊँ के कत्यूरी राजा दुलाशाह के दरबार में लगभग छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बिजुला नैक द्वारा हुडकी बजाई जाने का उल्लेख कत्यूरियों की गाथा में मिलता है। हुडुक उत्तराखंड का एक महत्वपूर्ण लोक वाद्य यंत्र है, जिसे जागरों, कृषि कार्यों तथा युद्ध प्रेरक प्रसंगो में बजाया जाता है।
इसकी लम्बाई लगभग 1 फुट 3 इंच होती है, तथा इसकी पुडियों को बकरी के आमाशय की भीतरी खाल से बनाया जाता है।
डौंर या डमरू
डौंर उत्तराखंड का एक प्रमुख वाद्ययंत्र है, जिसका अधिक प्रचलन गढ़वाल क्षेत्र में है। डौंर को एक ओर लकड़ी के सोटे (wooden string) और दूसरी ओर से हाथ से बजाया जाता है। डौंर को सानण या खमिर की लकड़ी से निर्मित किया जाता है, तथा इसके दोनों सिरों पर घुरड़, कांकड़ या बकरे की पूड़ी (खाल) लगाई जाती है।
Note: डौंर का वादन सिर्फ ब्राह्मण पुरोहित द्वारा ही किया जाता है।
मोछंग/मोरछंग
यह लोहे की पतली शिराओं से निर्मित एक छोटा सा वाद्ययंत्र है, जिसे होठों पर स्थिर रखकर अँगुलियों से बजाया जाता है। अँगुली के संचालन तथा होठों की हवा के प्रभाव से मोछंग में से मधुर स्वर निकलते हैं।
डफली
डफली, थाली के आकार का एक वाद्ययंत्र है जिसके ओर पूड़ी (खाल) चढ़ी होती है तथा इसके फ्रेम में घुँघरू लगे होते है।
मशकबीन
मशकबीन एक यूरोपियन वाद्य यंत्र है, जिसमें एक चमड़े की थैली में चार छेद होते है, जिनमें एक पाइप नीचे की ओर तथा तीन पाइप ऊपर की जोड़े जाते है। मशकबीन में हवा फूंकने के लिए एक पाइप ओर होता है, इस पाइप में कोई छेद नहीं किया जाता, बाकी चारों पाइपों में छेद किये जाते हैं।
इकतारा
यह तानपुरे के समान होता है तथा इसमें केवल एक तार होता है।
सारंगी
इस वाद्ययंत्र का उपयोग बाद्दी जाति (नृत्य व गायन से जीवनयापन करने वाली) और मिरासी जाति द्वारा किया जाता है। यह पेशेवर जातियों का मुख्य संगीत वाद्ययंत्र है।
अल्गोजा (बांसुरी)
इस वाद्ययंत्र को बांस या मोटे रिंगाल से निर्मित किया जाता है, जिसे केवल कुशल कारीगरों द्वारा ही बनाया जाता हैं। उत्तराखंड के लोकगीतों खुदेड़ अथवा झुमैला गीतों के साथ बांसुरी का प्रयोग भी किया जाता है।
तुरही, रणसिंघा और भंकोर
तुरही, रणसिंघा और भंकोर तीनों ही लगभग एक-दूसरे से मिलते जुलते वाद्य यंत्र हैं, प्राचीन काल में इनका प्रयोग युद्ध के समय किया जाता था। तांबे से निर्मित यह वाद्य यंत्र एक नाल के रूप में होता है जो मुख की ओर संकरा दूसरी और चौड़ा होता है।
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