गेहूँ (Wheat)

  • कुल – ग्रेमिनी (घास कुल)
  • जलवायु – उष्ण कटिबंधीय
  • तापमान – 10°-25°C
  • औसत वर्षा – 80 सेमी.
  • वैज्ञानिक नाम – Triticum aestivum

भारतीय गेहूँ की दो प्रकार की प्रजातियां है, जो निम्नलिखित है –

  • ट्रिटिकम कॉम्पेक्टम (Triticum Compactum)
  • ट्रिटिकम स्पैरोकोकम (T. Sphaerococcum)

वर्तमान समय संपूर्ण भारतवर्ष में गेहूँ की ट्रिटिकम ऐस्टिवम (T. Aestivum) प्रजाति की खेती की खेती है। गेहूँ की इस प्रजाति की खोज डा. नार्मन बोरलॉग (Dr. Norman Borlaug) ने मैक्सिको में की थी। डा. नार्मन बोरलॉग (Dr. Norman Borlaug) को उनके द्वारा किए कार्यों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चूका है।
वर्ष 1963 ई. में अमेरिका के रॉफेल्लर फाउंडेशन (Rofellar Foundation) की सहायता से भारत सरकार ने Sonora 64, Sonora 63 तथा Lerma Roja जैसी  मेक्सीकन गेहूँ के 100 किलोग्राम बीज का आयात किया तथा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा भी गेहूं की 5 प्रजातियों  Lerma Rojo 64-A, S-63, Sonora64, Mayo-64 तथा S-227 का आयात किया गया। वर्ष 1965 एवं 1966 में विस्तृत जाँच के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र (CIMMYT) से Lerma Rojo 64A (Single gene dwarf variety) तथा Sonora-64 (Double gene dwarf variety) नामक गेहूं की प्रजातियों का आयात किया गया।
हरित क्रान्ति के प्रथम चरण में गेहूं के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। भारत में M. S. स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक कहा जाता है।
Note: 

  • सोनारा-64 (Sonora 64) गेहूं की एक प्रेरित उत्परिवर्ती (Induced Mutant) प्रजाति थी।
  • उपरोक्त दोनों गेहूं की प्रजातियों (Triticum Compactum, T. Sphaerococcum) के साक्ष्य मोहनजोदड़ों की खुदाई से भी प्राप्त हुए है।

गेहूँ की प्रमुख प्रजातियां  (Major Wheat Species)

ट्रिटिकेल गेहूँ (Triticale Wheat) – इस प्रजाति का विकास गेहूँ एवं राई के मध्य ‘क्रॉस ब्रीडिंग कराकर किया गया है।
राज 3077 (Raj 3077) – गेहूँ की यह प्रजाति देर से बुआई एवं सिंचित क्षेत्रों हेतु उपयुक्त है। इस प्रजाति की औसत उत्पादकता 36 से 40 क्विंटल/हेक्टयेर है।
मैकोरानी गेहूँ (T. Durum) – गेहूँ की यह प्रजाति उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त है जहाँ सिंचाई की सुविधा नहीं है। इस गेहूँ से सूजी बनायी जाती है। मैकोरानी गेहूँ को सख्त गेहूँ (Hard wheat) के नाम से भी जाना जाता है।
इमर गेहूँ (T. Dicoccum) – गेहूँ की इस प्रजाति की खेती दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों की जाती है।
अन्य प्रजातियां – सोनालिका, कुंदन, अर्जुन, कल्याण सोना, मैकरोनी, राज 3077, अमर (HW-2000), देशरत्न  (BR-104), कंचन  (DR-803), गिरजा गोमती (K-9465), प्रभानी (51-PUSA), भवानी (HW-1085), चन्द्रिका (HPW-184) आदि।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) द्वारा विकसित गेहूँ की नवीनतम प्रजातियाँ – पूसा सिंधु गंगा, VL-829, H.I 1500, M.P 4010, N.W 2036, H.S  420, H.S 335, HS-542 (पूसा किरण), HS-562, HDCSW-18, HW-1098 (नीलगिरि खापली), HD-4728 (पूसा मालवी), पूसा बेकर आदि।
Note: 

  • जीरो टिल फर्टी सीड ड्रिल (Zero Till Ferti Seed Drill) नामक यंत्र का प्रयोग गेहूँ की बुआई में किया जाता है।
  • गेहँ में ग्लूटिन (glutin) नामक प्रोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है।\
  • गेहूँ में विटामिन B1, B2, B6 व E पाए जाते हैं। यह सभी विटामिन वसा में घुलनशील होते है तथा गेहूँ की पिसाई के समय इनका ह्रास हो जाता है।
  • पूसा बेकर नामक गेहूँ की प्रजाति को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) द्वारा विकसित किया गया है, जो पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के लिए उपयोगी है। गेहूँ की इस प्रजाति का उपयोग बिस्कुट बनाने में किया जाता है, यह प्रजाति यूरोपीय देशों द्वारा तय किये गए मानको के अनुरूप है।

गेहूँ की फसल के प्रमुख रोग (Major diseases of wheat crop)

रस्ट (Rust) – यह गेहूँ की फसल का एक प्रमुख रोग है, जिसे तीन वर्गों में विभाजित किया गया है

  1. Yellow Rust
  2. Brown Rust
  3. Black Rust

करनाल बंट (Karnal Bunt) – यह गेहूँ की फसल का एक प्रमुख रोग है, जो टिलटिया इंडिका (Tillatia Indica) नामक कवक के कारण होती है।
आइसोप्रोटयूरॉन (isoprotyuron) नामक खरपतवार नाशी का प्रयोग फेलेरिस माइनर (Phalaris minor) नामक खरपतवार को नष्ट करने के लिए किया जाता है। फेलेरिस माइनर (Phalaris minor) को गेहूँ का मामा के नाम से भी जाना जाता है।

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