जन्तु-जगत का वर्गीकरण

जीव संरचना के स्तर के आधार पर जंतु जगत का वर्गीकरण

  1. कोशिकीय स्तर
  2. ऊतक स्तर
  3. अंग स्तर
  4. अंग तंत्र स्तर

आधुनिक वर्गीकरण

जन्तु-जगत का वर्गीकरण

बहुकोशिकीय (मेटाजोआ जगत)

मेटाजोआ जगत या पोरीफेरा

  • रॉबर्ट ग्राण्ट ने 1825 ई. में पोरीफरा शब्द का प्रयोग किया था।
  • बहुकोशिकीय जलीय, द्विस्तरीय, शरीर पर असख्य छिद्र, अनियमित आकृति एवं पुनरूद्भवन (Regeneration) की क्षमता वाले जीव होते हैं। इनका शरीर ऊतकहीन और संवेदनहीन होता है। जैसे – साइकन, यूस्पंजिया, स्पंजिला, यूप्लेक्टेला आदि ।
  • यूप्लेक्टेला को ‘वीनस के फूलों की डलिया’ कहा जाता है।
  • स्पंजिला मीठे पानी में पाया जाने वाला स्पंज है।
  • यूस्पांजिया स्नान स्पंज कहलाता होता है।

सीलेन्ट्रेटा या निडेरिया

  • इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लूकर्ट ने 1847 में किया था। ये द्विस्तरीय, जलीय प्राणी होते हैं।
  • इनके शरीर में थैले जैसी एक ही गुहा (पाचन) पाई जाती है, जिसे अंतरगुहा (Coelenterom) कहते हैं।
  • इनमें नेत्रबिन्दु या स्टेटोसिस्ट पाये जाते हैं।
  • पॉलिपॉएड चूनेदार अस्थि का निर्माण करते हैं जिसे कोरल कहते हैं। इसके लार्वा को ‘प्लेनुला’ कहते हैं। जैसे – हाइड्रा, ओबीटिया, सी एनीमोन, फजिया, मीण्डा आदि।
  • हाइड्रा में अमरत्व का गुण पाया जाता है।
  • ऑरेलिया को जेलीफिश (Jelly Fish) कहा जाता है।
  • मेट्रीडियम (Metridium) को सी-एनीमोन भी कहते हैं।
  • गोर्गोनिया (Gorogonia) को समुद्री पंखा कहा जाता है।
  • फाइसेलिया (Physalia) को आमतौर पर पुर्तगाली युद्धपोत कहा जाता है।

प्लेटीहैल्मन्थीज

  • इस शब्द का प्रयोग गीगेनबार ने 1899 में किया था। ये प्राणी त्रिस्तरीय, अंतःपरजीवी और उभयलिंगी होते हैं।
  • इनमें उत्सर्जन क्रिया ज्वाला कोशिका (Flame Cell) द्वारा होती है। जैसे – टीनिया, प्लेनेरिया, सिस्टोसोमा, फैसिओला आदि।
  • टीनिया सोलियम एक फीताकृमि है जो मनुष्य की आंत में रहने वाला अन्तः परजीवी होता है।
  • सिस्टोसोमा (Schistosoma) को रक्त पर्णाभ (Blood Fluke) भी कहा जाता है।

एस्केल्मिन्थीज या निमेटोडा 

  • इन्हें गोलकृमि या सूत्रकृमि भी कहा जाता है।
  • ये जलीय, स्थलीय, परजीवी होते हैं और इनमें कृत्रिम देहगुहा होती है।
  • ये अधिकतर परजीवी होते हैं तथा अपने पोषकों में रोग उत्पन्न करते हैं। जैसे – एस्केरिस, ट्राइकिनेला, ऐकाइलोस्टोमा, वूचेरिया आदि ।
  • ऐस्केिरिस मनुष्य की छोटी आंत में पाया जाता है।
  • वूचेरिया से मनुष्य में फाइलेरिया रोग उत्पन्न होता है।

ऐनीलिडा

  • ऐनेलिडा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लैमार्क ने किया था।
  • इनमें जन्तुओं का शरीर खण्डित, लंबा एवं कृमि के आकार का होता है।
  • वास्तविक देहगुहा की उत्पत्ति सर्वप्रथम इन्हीं जंतुओं में ही हुई थी।
  • ये स्वतंत्रजीवी, बहुकोशिकीय, त्रिस्तरीय, सीलोममुक्त होते हैं।
  • गति के लिए इनमें शूक (Setae) और चूषक पाये जाते हैं।
  • इनमें तंत्रिका रज्जू उपस्थित होती है। जैसे – केंचुआ, जोंक, बेरिस, पॉलीगोर्डियस, नेरीस, एफ्रोडाइट आदि।
  • जोंक बाह्य परजीवी तथा रक्ताहारी होती है। वह खून चूसते समय एक प्रकार का प्रतिस्कन्दक निकालती है जो खून को जमने से रोकती है।
  • एफ्रोडाइट को समुद्री चूहा कहा जाता है।
  • केंचुआ को मृदा उर्वरता का बैरोमीटर, प्रकृति का हलवाहा, एवं पृथ्वी की आंत कहते हैं।
  • नेरीस को सीपीकृमि कहते हैं।

आर्थोपोडा

  • ‘आर्थोपोडा’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वान सीबोल्ड (Van Seibold) ने 1845 ई. में किया था। यह जन्तु जगत का सबसे बड़ा संघ है।
  • ये जन्तु जल, थल एवं वायु तीनों स्थानों पर पाये जाते हैं।
  • जंतुओं का शरीर सिर व धड़ में विभक्त होता है।
  • ये खण्डयुक्त, त्रिस्तरीय होते हैं। देहगुहा एक रूधिर गुहा होती है। जो रक्तवाहिनियों के मिलने से बनती है।
  • इनमें खुला रूधिर तंत्र होता है तथा तंत्रिका तंत्र पूर्ण विकसित होता है।
  • इनमें निषेचन बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार का होता है। जैसे – तिलचट्टा, मधुमक्खी, रेशम का कीड़ा, कनखजूरा, ट्राइआर्थस, बिच्छू, मकड़ी, किलनी, झींगा, केकड़ा, मच्छर, मक्खी आदि ।
  • इस संघ का सबसे बड़ा वर्ग कीटवर्ग है।

मोलस्का

  • मोलस्का अकशेरूकी जगत का दूसरा सबसे बड़ा संघ है।
  • कई प्राणी उभयचारी होते हैं तथा शरीर कवच से ढाका होता है।
  • इनका शरीर एक पतली झिल्ली मैंटल से ढंका रहता है। मैंटल के चारों तरफ एक कठोर कवच होता है।
  • इनमें रक्त परिसंचरण तंत्र विकसित होता है। रक्त नीला, हरा, लाल या रंगहीन होता है। इनमें रंग हीमोसियानिन नाम के वर्णक की उपस्थित के कारण होता है।
  • इनमें उत्सर्जन वृक्कों द्वारा होता है। जैसे – ऑक्टोपस, सीपिया, मोती शुक्ति, सीप, लाइमैक्स , हेलिक्स, पाइला नियोपाइलिना आदि।
  • पाइला को घोंघा या एप्पल स्नेल कहते हैं।
  • सीपिया का साधारण नाम कटल फिश है।
  • ऑक्टोपस को डेविल फिश भी कहते हैं।
  • काइटन को समुद्री चूहिया, ऐप्लीसिया को समुद्री खरगोश, ऑक्टोपस को शृंगमीन के नाम से जाना जाता है।

प्रोटिस्टा जगत (एककोशिकीय)

प्रोटोजोआ – प्रोटोजोआ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गोल्डफस ने 1820 में किया था।

  • ये सबसे आदिकालीन और सबसे साधारण जंतु हैं।
  • एककोशिकीय व सूक्ष्मदर्शी प्राणी।
  • ये जलीय, स्वतंत्रजीवी, सहजीवी या परजीवी होते हैं।
  • इन जंतुओं के शरीर में कोई ऊतक या अंग नहीं होते हैं।
  • इनमें केवल अंगक होते हैं।
  • इनका शरीर नग्न या पोलिकल द्वारा ढका रहता है। कुछ जन्तु कठोर खोल में होते हैं। जैसे – अमीबा, एण्ट अमीबा, हिस्टोलिका, यूग्लीना, पैरामीशियम कॉडेटम, प्लैजमोडियम आदि ।
  • अमीबा का वैज्ञानिक नाम – अमीबा प्रोटियस
  • एण्ट अमीबा हिस्टोलिटिका परजीवी के कारण मनुष्य को पेचिस हो जाती है। एण्ट अमीबा जिनजिवैलिस परजीवी से पायरिया (Pyarrhoea) रोग होता है।
  • ट्रिपैनोसोमा गैम्बियेन्स मनुष्य के रूधिर में होता है जिससे सुषप्ति रोग (Sleeping Sickness) होता है। इसके अलावा इससे गैब्बियन ज्वर भी हो जाता है।
  • लीश मैनिया डोनोवानी के कारण मनुष्य में कालाजार (Kalazar) रोग हो जाता है।
  • मलेरिया बुखार प्लैजमोडियम के माध्यम से मनुष्य में उत्पन्न होता है |
  • चप्पल के आकार का होने के कारण पैरामीशियम कॉडेटम को चप्पल जन्तु भी कहते हैं।
  • यूग्लीना को हरा प्रोटोजोआ कहा जाता है।

एकाइनोडमेट

  • इनकी त्वचा कांटेदार होती है। जैसे – तारा मछली, ब्रिस्टल स्टार, समुद्री खीरा, समुद्री लिली, थायोन; एण्टीडॉन आदि।
  • एस्टेरियस को तारामीन कहते हैं।

कार्डेटा

  • कार्डेटा को 13 वर्गों में विभाजित किया गया है। इस संघ में वे जन्तु हैं जिनके जीवन चक्र की किसी न किसी अवस्था में एक पृष्ठ रज्जु एवं एक खोखली पृष्ठ तंत्रिका रज्जु पायी जाती है।
  • इस संघ के जन्तुओं में क्लोम दरारें अवश्य पायी जाती हैं।

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