वाताग्न वह सीमा है जिसके सहारे दो विपरीत स्वभाव वाली वायु (ठंडी व गर्म वायु) आपस मिलती हैं। यह ठंडी व गर्म वायु के मध्य 5 से 80 Km चौड़ी एक संक्रमण पेटी होती है। इसे वाताग्न प्रदेश भी कहा जाता है। वाताग्न उत्पत्ति की प्रक्रिया को वाताग्न उत्पत्ति एवं उसके नष्ट होने की प्रक्रिया को वाताग्न क्षय कहते हैं। वाताग्र उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएँ निम्नलिखित है ―
विपरीत तापक्रम
इसके लिए एक वायुराशि का ठंडा, भारी व शुष्क होना अनिवार्य हैं तथा दूसरे वायुराशि का अति गर्म, हल्का एवं आर्द्र होना आवश्यक है। जहाँ ये दोनों वायु (ठंडी व गर्म वायु) आपस नहीं मिलती हैं वहां वाताग्न का निर्माण नहीं होता हैं। उदाहरण – भूमध्यरेखा के व्यापारिक पवन (उ.पू. व द.पू.) आपस में मिलते हैं, परन्तु तापक्रम के कारण यहाँ वाताग्न नहीं बनते।
वायुराशियों की विपरीत दिशा
जब विपरीत स्वभाव की वायुराशियाँ एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का प्रयास करें तो लहरनुमा वाताग्र बनता है। अपसरण की स्थिति में वाताग्र का निर्माण कदापि नहीं होता किन्तु वाताग्न का क्षय अवश्य हो जाता है। पैटरसन ने चार प्रकार के पवन प्रवाह क्रम का उल्लेख किया है जिनमें अंतिम दो में ही वाताग्न उत्पत्ति की संभावना होती है।
- स्थानान्तरण प्रवाह ― इसमें समताप रेखाएँ एक-दूसरे के समानान्तर व दूर होती हैं। अत: वाताग्र का निर्माण नहीं होता।
- घूर्णन प्रवाह ― तापक्रम में विपरीत दशा बन जाती है परन्तु वाताग्र का निर्माण नहीं होता।
- अभिसरण तथा अपसरण ― इसमें तापक्रम की विपरीत स्थिति बन जाती है परन्तु यह एक केन्द्र के सहारे होते हैं न कि एक रेखा के सहारे। अत: वाताग्र का निर्माण नहीं होता।
- विरूपण प्रवाह ― विपरीत तापक्रम कौ वायुराशियाँ मिलने पर बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के सहारे फैलती हैं। वाताग्न निर्माण के लिए यह सर्वाधिक अनुकूल स्थिति है।
वाताग्र का निर्माण
विरूपणी प्रवाह
विरूपणी प्रवाह में जब दो विपरीत तापक्रम वाली हवाएँ मिलती हैं। तो बाह्य प्रवाह अक्षरेखा के सहारे हवाएँ फैलती हैं। समताप रेखा एवं बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के बीच के कोण पर वाताग्र का निर्माण संभव होता है। 45° से अधिक के कोण पर वाताग्र का निर्माण संभव नहीं होता । जब समताप रेखा बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के समानान्तर होने का प्रयास करती है तो वाताग्न अधिक सक्रिय हो जाता है। वाताग्र की सक्रियता मुख्य रूप से ताप-प्रवणता पर आधारित होती है।
स्थायी वाताग्र
गर्म व ठंडी वायु एक-दूसरे के समानान्तर होते हैं। परंतु वर्षा नहीं होने के कारण इनका महत्व नगण्य होता है। परन्तु ऐसी स्थिति कभी-कभी हो पाती है।
पूर्ण विकसित वाताग्न
जब दोनों वायुराशियाँ एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का प्रयास करें तो लहरनुमा वाताग्र का पूर्ण विकास हो जाता है। यह वाताग्न वायुमंडलीय मौसमी प्रक्रियाओं का नियंत्रक है।
वाताग्न के प्रकार
उष्ण वाताग्न (Warm Front)
इसमें गर्म व हल्की वायु आक्रामक होती है एवं ठंडी वायु के ऊपर तीव्र गति से चढ़ती है। उष्ण वाताग्न का ढाल 1:100 से 1:400 तक होता है।
शीत वाताग्र (Cold Front)
इसमें ठंडी व भारी वायु आक्रामक होती हैं एवं गर्म वायु को ऊपर उठा देती है। शीत वाताग्न का ढाल 1: 25 से 1: 100 तक होता है।
अधिविष्ट वाताग्न (Occluded Front)
जब शीत वाताग्न तीव्र गति से चलकर उष्वा ताग्र से मिल जाए तो गर्म वायु का नौचे धरातल से सम्पर्क समाप्त हो जाता है एवं अभिविष्ट वाताग्र का निर्माण हो जाता है।
स्थायी वाताग्न (Stationary Front)
इस स्थिति में दोनों वायुराशियाँ एक-दूसरे के समानान्तर होती हैं जिससे स्थायी वाताग्र का निर्माण होता है।