पारिस्थितिकी विज्ञान (Ecology)

पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)
जीवधारियों और उनके आवासों के बीच होने वाले सम्बन्धों का अध्ययन पारिस्थितिकी (Ecology) के तहत किया जाता है। पारिस्थितिकी तंत्र की विचारधारा को सर्वप्रथम ए जी टेन्सले ने 1935 में प्रस्तुत किया था। पारिस्थितिक तंत्र को जीवीय (जैसे उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक) और अजीवीय (जलवायुवीय, अकार्बनिक पदार्थ एवं कार्बनिक पदार्थों) घटकों में बांटा जाता है।

पारिस्थितिकी कारक (Ecological Factors)

पर्यावरण के वे कारक जो पौधों और जीव-जंतुओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभावित करते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं –

अजैविक कारक (Abiotic Factor)

इसके अन्तर्गत निर्जीव कारक आते हैं, जैसे – प्रकाश, वायु, ताप, आर्द्रता, भूआकृतिक, मृदा आदि।
प्रकाश की मात्रा, गुण एवं अवधि का प्रभाव पौधों पर पड़ता है। नीले रंग के प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया धीमी तथा लाल रंग में सबसे अधिक होती है। प्रकाश की अवधि के आधार पर पौधों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  1. दीर्घ प्रकाशीय पौधे – गुलाब, हेनबेन आदि।
  2. अल्प प्रकाशीय पौधे – तम्बाकू, सोयाबीन आदि।
  3. प्रकाश उदासीन पौधे – कपास, टमाटर, मिर्च, सूर्यमुखी आदि।

ताप के कारण पौधों में होने वाली अनुक्रियाएं तापकालिता (Thermoperiodism) कहलाती हैं। तापमान के बढ़ने से पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया बढ़ जाती है।

जैविक कारक (Biotic Factor)

पर्यावरण में विभिन्न जीवधारी एक-दूसरे से आपसी संबंध स्थापित करते हैं, जो निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

सहजीवन (Symbiosis) – दो जीवों का परस्पर लाभकारी संबंध सहजीवन को प्रस्तुत करता है, जैसे – कवक व शैवाल मिलकर लाइकेन (Lichen) बनाते हैं।

परजीविता (Parasitism) – इसमें एक जीव दूसरे जीव पर निर्भर रहता है लेकिन हानि पहुंचाता है, जैसे- जीवाणु, विषाणु, कवक आदि।

सहजीविता (Commercialism) – ऐसे संबंध में एक जीव को किसी भी प्रकार की लाभ या हानि नहीं होती है जबकि दूसरे जीव को लाभ होता है, जैसे-लियाना, अधिपादप (Epiphytes) आदि।

परभक्षण (Predation) – इसमें एक जीव दूसरे जीव का पूरी तरह भक्षण करता है, जैसे- आर्थोवोट्रीस, जूफैगस आदि।

मृतोपजीविता (Saprophytism) – इसमें अन्तर्गत सड़ेगले पदार्थों पर आश्रित रहने वाले जीव आते हैं, जैसे- नीयोटिया, कवक आदि।

पारिस्थितिकी तंत्र के घटक

पारिस्थितिकी तंत्र के मुख्यतः दो घटक होते हैं –

  1. जैविक घटक
  2. अजैविक घटक

जैविक घटक 

पादप और जन्तुओं को मिलाकर जैविक घटक बनता है।

उत्पादक – इसके अन्तर्गत हरे पेड़-पौधे आते हैं जो अपना भोजन साधारण अकार्बनिक पदार्थ से जटिल कार्बनिक के रूप में तैयार करते हैं। इन्हें स्वपोषित (Autotrophs) वर्ग में रखा गया है।

उपभोक्ता – जो जीव अपना भोजन स्वयं बनाने में सक्षम नहीं होते हैं, उन्हें पारिस्थितिक तंत्र के इस वर्ग में रखा जाता है।

प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers) – इस श्रेणी के अंतर्गत शाकाहारी जंतु जैसे-गाय, बकरी, खरगोश आदि आते हैं।

द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers) – इस श्रेणी के उपभोक्ता मांसाहारी (Carnivores) और सर्वाहारी (Connivores) होते हैं जैसे – मनुष्य, मेढ़क, भेड़िया आदि।

तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumers) – इस वर्ग के जीव अपना भोजन प्राथमिक तथा द्वितीयक श्रेणी के उपभोक्ताओं से प्राप्त करते हैं, जैसे – सांप, बड़ी मछली, शेर, बाघ, बाज आदि। ये उपभोक्ता शीर्ष मांसाहारी (Top Carnivores) होते हैं।

अपघटक (Decomposers) – इन्हें मृतोपजीवी भी कहा जाता है। अपघटक अपना जीवन निर्वाह उत्पादक एवं उपभोक्ता के मृत शरीर से प्राप्त करते हैं। इसके अन्तर्गत सूक्ष्मजीवी जैसे-जीवाणु, विषाणु, प्रोटोजोआ और कवक आते हैं।

अजैविक घटक

अजैविक घटकों में अनेक तरह के अकार्बनिक तथा कार्बनिक तत्वों के साथ-साथ ऊर्जा भी सम्मिलित होती है। इनको निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा गया है –

  1. अकार्बनिक तत्व – ऑक्सीजन, फास्फोरस, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैल्सियम आदि।
  2. कार्बनिक तत्व – वसा, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन आदि।
  3. जलवायु – प्रकाश, वर्षा, तापक्रम आदि।

पारिस्थितिकी तंत्र की प्रक्रिया

किसी स्थान पर पाये जाने वाले किसी जीव समुदाय का वातावरण से तथा अन्य जैविक समुदाय से परस्पर संबंध होता है। इसी पारस्परिक संबंध से इस तंत्र की प्रक्रिया संचालित रहती है। इसी आधार पर किसी विशिष्ट क्षेत्र में वातावरण, समय और जैविक कारकों के परस्पर प्रभावों से संपूर्ण जैविक समुदाय की प्रक्रिया चलती रहती है।

पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा परिवर्तन

‘ऊर्जा प्रवाह’ पारिस्थितिकी तंत्र के प्रमुख कार्यों में से एक है। पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा संचयन एवं ऊर्जा उपभोग उष्मागतिज के दो मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है ।

  1. थर्मोडाइनैमिक्स (Thermodynamics) का पहला सिद्धांत है कि ऊर्जा न उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट, बल्कि यह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तित हो सकती है। इसके अनुसार सौर प्रकाश की ऊर्जा खाद्य एवं ताप ऊर्जा में परिवर्तित हो सकती है।
  2. थर्मोडाइनैमिक्स (Thermodynamics) का दूसरा सिद्धांत है कि किसी भी ऊर्जा का परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता, जब तक कि ऊर्जा को संघन से विरल अवस्था में न पहुंचा दिया जाये ।

इस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र में एक जीव से दूसरे जीव में खाद्य ऊर्जा का स्थानांतरण एवं उपापचयी (Metabolic) क्रियाओं के कारण उष्मा के रूप में खाद्य के मुख्य भाग में कमी होती जाती है और जीवित उत्तकों अथवा जैवभार में मात्र एक छोटा भाग ही संचित हो पाता है । जब खाद्य ऊर्जा अपने संघन रूप में होती है तब ताप ऊर्जा का उत्सर्जन तीव्रता से होता है। ऊर्जा रूपों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

खाद्य श्रृंखला (Food Chain)

यह विभिन्न प्रकार के जीवधारियों और पादपों का एक क्रम है जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य ऊर्जा का प्रवाह होता है। खाद्य श्रृंखला का प्रत्येक स्तर ऊर्जा स्तर (Tropic level) कहलाता है।  जैसे – पौधे → कीट → मेढ़क → सर्प → पक्षी

खाद्य जाल (Food Web)

पारिस्थितिक तंत्र में बहुत-सी खाद्य श्रृंखलायें होती हैं जो स्वतंत्र न होकर आपस में जुड़ी होती हैं। ऐसी जटिल खाद्य श्रृखलाओं को खाद्य जाल कहते हैं। जैसे – घास → भेड़िया → शेर
पारिस्थितिक पिरामिड – पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) में मौजूद विविध संबंधों जैसे संख्या, ऊर्जा और बॉयोगैस, को आरेख द्वारा बताने को इको पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) पिरामिड कहते हैं।

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