सभी जीवों के शरीर में कोशिकीय उपापचय के फलस्वरूप अपशिष्ट पदार्थ का निर्माण होता है जिसका शरीर से बाहर निष्कासन उत्सर्जन कहलाता है। मनुष्य के शरीर से उत्सर्जित होने वाले प्रमुख उत्सर्जी पदार्थ निम्नलिखित है –
- कार्बन डाइऑक्साइड
- जल
- खनिज लवण
- पित्त
- यूरिया
मनुष्य में उत्सर्जन कार्य
मनुष्य में 5 अंग उपापचयी अपशिष्ट को शरीर से बाहर करने में शामिल रहते हैं जो निम्नलिखित है –
त्वचा (Skin) – त्वचा में उपस्थिति तैलीय ग्रन्थियां एवं स्वेद ग्रन्थियां क्रमशः सीबम एवं पसीने का स्राव करती हैं। सीबम एवं पसीने के साथ अनेक उत्सर्जी पदार्थ शरीर से बाहर निष्कासित हो जाते हैं।
फेफड़ा (Lungs) – मनुष्यों में वैसे तो फेफड़ा श्वसन तंत्र से सम्बन्धित अंग है लेकिन यह श्वसन के साथ-साथ उत्सर्जन का भी कार्य करता है। फेफड़े द्वारा दो प्रकार के गैसीय पदार्थों कार्बन डाइऑक्साइड एवं जलवाष्प का उत्सर्जन होता है। कुछ पदार्थ जैसे – लहसुन, प्याज और कुछ मसाले जिनमें कुछ वाष्पशील घटक पाये जाते हैं, जिनका उत्सर्जन फेफड़ों के द्वारा होता है।
यकृत (Liver) – यकृत कोशिकाएं आवश्यकता से अधिक ऐमीनो अम्ल तथा रुधिर की अमोनिया को यूरिया में परिवर्तित करके उत्सर्जन में मुख्य भूमिका निभाती हैं। इसके अतिरिक्त यकृत तथा प्लीहा कोशिकाएं टूटी-फूटी रुधिर कोशिकाओं को विखंडित कर उन्हें रक्त प्रवाह से अलग करती हैं। यकृत कोशिकाएं हीमोग्लोबिन का भी विखण्डन कर उन्हें रक्त प्रवाह से अलग करती हैं।
पाचन तंत्र (Digestive Tract) – यह शरीर से कुछ विशेष लवणों, कैलिशयम, आयरन, मैगनीशियम और वसा को उत्सर्जित करने के लिए जिम्मेदार होता है।
वृक्क द्वारा उत्सर्जन –
शरीर में प्रोटीन के अपचयन (Catabolism) के कारण नाइट्रोजन युक्त वर्ण्य पदार्थ बनते हैं, जिसे यूरिया एवं यूरिक अम्ल के रूप
में जल में विलेय मूत्र के साथ उत्सर्जित किया जाता है। यूरिया का निर्माण यकृत में होता है। इनका उत्सर्जन वृक्क के माध्यम से होता है।
शरीर में जल की हानि या निकासी फेफड़ों में श्वसन से, त्वचा से एवं मूत्र के द्वारा पूर्ण की जाती है। शरीर से अतिरिक्त जल वृक्क द्वारा मूत्र के रूप में उत्सर्जित किया जाता है।
यकृत में पित्त का निर्माण होता है। पित्त का निर्माण टूटी-फूटी लाल रक्त कणिकाओं में हीमोग्लोबीन से होता है। यकृत से पित्त सदैव निकलता रहता है परन्तु यह पित्ताशय में आकर संग्रहीत हो जाता है। पित्ताशय से यह समय-समय पर ड्योडिनम (Duodenum) में पित्त वाहिनी द्वारा उत्सर्जित कर दिया जाता है।
मानव मूत्र प्रणाली के प्रमुख घटक
वृक्क (Kidney) शरीर में दो वृक्क होते हैं – बांया एवं दांया। यह आकृति में सेम के बीज के समान होता है। वृक्क उदरगुहा (Abdomen) में स्थित होते हैं। प्रत्येक वृक्क के शीर्ष पर एक अंतरस्रावी अधिवृक्क स्थित होता है। वृक्क के शीर्ष पर एक अंतःस्रावी ग्रंथी अधिवृक्क के अवतल भाग में मूत्रवाहिनी (Urinary Bladder) में खुल जाती है।
वृक्क में बहुत सी वृक्क नलिकायें होती है। इन्हीं वृक्क नलिकायों में मूत्र का निर्माण होता है।
मूत्र में 95% जल, 2% यूरिया, 0.6% नाइट्रोजन एवं थोड़ी मात्रा में यूरिक अम्ल पाया जाता है।
शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने की अवस्था में विशेष एन्जाइम के स्रवण से वृक्क एरिथ्रोपोइटिन (erythropoietin) नामक हार्मोन द्वारा लाल रुधिराणुओं के तेजी से बनने में सहायक होता है।
शरीर में परासरण नियंत्रण (Osmoregulation) द्वारा वृक्क जल की निश्चित मात्रा को बनाए रखता है।
वृक्क ऊतक की तीन परतों से ढका रहता है, जो निम्नलिखित है
- इसकी सबसे अंदर की परत मजबूत और तंतुमय पदार्थ की बनी होती है, जिसे वृक्कीय (गुर्दै) सम्पुट (renal capsule) कहा जाता है। यह परत मूत्रनलियों की सतही परत में विलीन हो जाती है।
- इसकी मध्य की परत परिवृक्कीय (गुर्दै) वसा की बनी होती है। जिसे वसीय सम्पुट (adipose capsule) कहा जाता है। वसा की यह गद्दीनुमा परत गुर्दे को झटकों और आघातों से बचाती है।
- इसकी बाह्य परत सीरमी कला के नीचे स्थित प्रावरणी होती है, जिसे वृक्कीय प्रावरणी (renal fascia) कहते हैं। वृक्कीय प्रावरणी के चारों ओर वसा की एक दूसरी परत और होती है जिसे परिवृक्कीय वसा (pararenal fat) कहते हैं। वृक्कीय प्रावरणी संयोजी ऊतक की बनी होती है, जो गुर्दे को घेरे रहती है तथा इसे पश्च उदरीय भित्ति से कसकर जोड़े रहती है।
वृक्काणु (Nephron)
हर गुर्दे में लगभग 10 लाख वृक्काणु होते हैं जिनमें से हर वृक्काणु मूत्र बनाने वाला एक स्वतंत्र इकाई होता है। इन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी के द्वारा ही देखा जा सकता है। गुर्दे के कार्यात्मक इकाई के रूप में वृक्काणु रक्त का प्रारम्भिक निस्यन्दन पूर्ण करके, निस्यन्द से उन पदार्थों का दुबारा अवशोषण कर लेते हैं जो शरीर के लिए उपयोगी होते हैं तथा व्यर्थ पदार्थ मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं। वृक्काणु दो प्रकार के होते हैं
- कॉर्टिकल
- जक्स्टामेड्यूलरी
कॉर्टिकल वृक्काणु, कॉर्टेक्स के शुरुआती दो तिहाई भाग में रहते हैं। जिनकी नलिकीय संरचनाएं केवल मेड्यूला के वृक्कीय पिरामिड के आधार तक होती है जबकि जक्स्टामेड्यूलरी वृक्काणु के लम्बे लूप वृक्कीय पिरामिड की गहराई में निकले रहते हैं। कॉर्टिकल वृक्काणु जक्स्टामेड्यूलरी वृक्काणु की अपेक्षा लगभग सात गुने अधिक होते हैं। सामान्य अवस्थाओं में गुर्दो का कार्य, कॉर्टिकल वृक्काणु में होता रहता है लेकिन जक्स्टामेड्यूलरी वृक्काणु दबाव अधिक होने की स्थितियों में ही सक्रिय होते हैं। हर वृक्काणु के निम्न दो मुख्य भाग होते हैं –
- कोशिकागुच्छीय या बोमैंस सम्पुट,
- वृक्कीय (गुर्दे) नलिका
मूत्र निर्माण
मूत्र को बनाने में गुर्दे तीन प्रक्रियाओं का प्रयोग करते हैं
- कोशिका गुच्छीय निस्यन्दन (Glomerular filtration)
- नलिकीय पुनरवशोषण (Tubular reabsorption)
- नलिकीय स्रवण (Tubular secretion)
कोशिका गुच्छीय निस्यन्दन (Glomerular filtration)
गुच्छ (ग्लोमेरुलस) एक निस्यन्दक के रूप में कार्य करता है। जब रक्त अभिवाही धमनिका से गुच्छ में से होकर बहता है तो इसका दबाव अधिक होता है (लगभग 75 mm Hg)। इस दबाव से रक्त प्लाज्मा का कुछ भाग गुच्छ कैप्सूल में पहुंच जाता है लेकिन रक्त कोशिकाएं और प्लाज्मा प्रोटीन्स के बड़े अणु गुच्छ के अंदर ही रह जाते हैं क्योंकि ये कैप्सूल की अर्द्धपारगम्य भित्तियों के छिद्रों से होकर गुजर नहीं पाते हैं। इस प्रक्रिया को ‘गुच्छ निस्यन्दन या फिल्ट्रेशन’ कहते हैं तथा उत्पन्न हुए द्रव को गुच्छ निस्यन्द या फिल्ट्रेट कहते हैं।
नलिकीय पुर्नवशोषण (Tubular reabsorption)
छनकर आया हुआ द्रव (ग्लोमेरुलर निस्यन्द) फिर वृक्काणुओं या वृक्कीय (गुर्दै) नलिकाओं से होकर गुजरता है तो शरीर के लिए उपयोगी पदार्थों जैसे – जल, सोडियम, आयन्स, ग्लूकोज तथा अमीनो अम्लों का वृक्काणु नलिकाओं की कोशिकाओं द्वारा पुनः अवशोषण हो जाता है तथा शरीर की चयापचयी क्रियाओं के दौरान उत्पन्न तथा रक्त में जमा विषैले पदार्थ, जैसे- यूरिया, यूरिक एसिड और क्रिएटिनीन आदि का अवशोषण नहीं होता और ये मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं। यह प्रक्रिया नलिकीय पुर्नवशोषण‘ कहलाती है।
नलिकीय स्रवण (Tubular secretion)
शरीर के लिए कुछ अनावश्यक आयन्स और पदार्थ परिनलिकीय कोशिकाओं के रक्त से गुच्छ (ग्लोमेरुलर) निस्यन्द में पहुंच जाते हैं जो संवलित नलिकाओं में होकर गुजरते हैं। इस प्रकार पोटैशियम आयन्स, हाइड्रोजन आयन्स जैसे उत्पाद, कुछ औषधियां और कार्बनिक यौगिक मूत्र के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। यह प्रक्रिया नलिकीय स्रवण कहलाती है। | गुच्छ (ग्लोमेरुलर) निस्यन्द वृक्काणु (नेफ्रॉन) में होकर गुर्दे के अंदरूनी भाग मेड्यूला में तथा फिर दुबारा कॉर्टेक्स में पहुंचता है। इस प्रक्रिया में जरूरी पदार्थ जैसे- जल और ग्लूकोज का रक्त में पुनरवशोषण हो जाता है। अंत में, गुच्छ (ग्लोमेरुलर) निस्यन्द दुबारा मेड्यूला में पहुंचता है, जहां यह मूत्र कहलाता है तथा मूत्रनली से होकर मूत्राशय में पहुंच जाता है। छना हुआ रक्त दुबारा वृक्कीय शिरा द्वारा शरीर में पहुंच जाता है।
उत्सर्जन तंत्र के कार्य
- ये शरीर में जल और इलेक्ट्रोलाइट्स का संतुलन बनाए रखते हैं।
- पूरे शरीर में जल संतुलन का नियमन करके, रक्त के प्लाज्मा आयतन को स्थिर बनाए रखते हैं।
- ये शरीर में स्थित तरल के परासरणी दाब को बनाए रखने में मदद करते हैं।
- ये अमोनिया पैदा कर शरीर में रक्त का हाइड्रोजन आयतन सांद्रण स्थिर रखते हैं।
- ये शरीर के तरलों की मात्रा, उनकी तनुता और प्रतिक्रिया को नियंत्रित करते हैं।
- ये रेनिन नामक एन्जाइम को पैदा करते हैं जो रक्तदाब का नियमन करने में मदद करता है।