इस प्रथा में व्यक्ति को बिना पारिश्रमिक दिए कुली का काम करना पड़ता था इसी कारण इसे कुली बेगार (Kuli Begar) कहा जाता था | विभिन्न ग्रामों के ग्राम प्रधानो (पधानों) का यह दायित्व था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में शासक वर्ग (अंग्रेज़ो) को कुली उपलब्ध कराएगा। इस कार्य के नियमतिकरण हेतु ग्राम प्रधान के पास एक रजिस्टर होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम लिखे होते थे और सभी को बारी-बारी से कुली बेगार (Kuli Begar) दिए जाने के लिए बाध्य थे |
इसके अतिरिक्त शासक वर्ग के भ्रमण के दौरान भी उनके खान-पान और सभी सुविधाओं का इंतज़ाम भी ग्रामीणों को ही करना पड़ता था|
कुली बेगार आन्दोलन का कारण
- गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिए इस कुरीति को बढावा देने लगे | इ
- कभी-कभी ग्रामीणों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। जैसे – अंग्रेजों की कमोङ या गन्दे कपङे आदि ढोना |
- अंग्रेजो द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से भी शोषण किया जा रहा था |
इतिहास
सबसे पहले चन्द शासकों ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ था, यह कर आम जनता पर नहीं बल्कि उन मालगुजारों पर लगाया गया था जो भू-स्वामियों और जमीदारों से कर वसूला करते थे। सम्भवतः यह कुली बेगार प्रथा का प्रारंभिक रूप था। गोरखाओं के शासनकाल में यह प्रथा और व्यापक हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने अपने शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में इसे समाप्त कर दिया लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजों ने इस प्रथा को पुनः लागू किया और इसे इसके दमनकारी रूप तक पहुंचाया |
पृष्ठभूमि
1913 में कुली बेगार (Kuli Begar) को उत्तराखंड के सभी निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया | बद्री दत्त पाण्डे जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया | उन्होंने अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से इस प्रथा के खिलाफ जनजागरण तथा विरोध भी प्रारम्भ कर दिया | वर्ष 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोबिन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्याम लाल शाह आदि लोग सम्मिलित हुये और बद्री दत्त पाण्डे जी ने कुली बेगार आन्दोलन के लिये महात्मा गांधी से समर्थन प्राप्त किया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ सभी को जागरूक करने लगे |
आन्दोलन
बागेश्वर (Bageshwar) में सरयू और गोमती नदी के संगम पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले उत्तराखंड के लोक पर्व उत्तरायणी के अवसर पर 14 जनवरी, 1921 को कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की भी सहभागिता रही, मेले में अलग-अलग गांवों से आए लोगों के हुजूम ने इस आंदोलन को एक विशाल प्रदर्शन में बदल दिया।
इस आन्दोलन के शुरू होने से पूर्व ही जिलाधिकारी द्वारा पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा, जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था “कुली बेगार बन्द करो”, इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई।
इस सभा को सम्बोधित करते हुये बद्रीदत्त पाण्डे जी ने कहा “पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।” सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया।
इस सफल आंदोलन के बाद जनता ने बद्री दत्त पाण्डे जी को कुमाऊं केसरी की उपाधि दी |
इस आंदोलन से महात्मा गांधी जी अत्यधिक प्रभावित हुए और स्वयं बागेश्वर (Bageshwar) आए और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इस आंदोलन का उल्लेख गांधी जी ने यंग इंडिया (Young India) में किया और लिखा कि “इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रान्ति थी।”