महासागरीय जल भूमि की तरह सौर ऊर्जा के द्वारा गर्म होते हैं। स्थल की तुलना में जल के तापन व शीतलन की प्रक्रिया धीमी होती है।
तापमान का ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज वितरण
महासागरीय जल में बढ़ती हुई गहराई साथ-साथ तापमान में भी कमी आती जाती है। यह सीमा समुद्री सतह से लगभग 100-400 meter नीचे प्रारंभ होती है एवं कई सौ मीटर नीचे तक जाती है। वह सीमा क्षेत्र जहाँ तापमान में तीव्र गिरावट आती है, ताप प्रवणता (थर्मोक्लाईन-Thermocline) कहा जाता है। जल के कुल आयतन का लगभग 90 % गहरे महासागर में ताप प्रवणता (थर्मोक्लाईन-Thermocline) के नीचे पाया जाता है। इस क्षेत्र में तापमान 0 डिग्री सेल्सियस पहुँच जाता है। मध्य एवं निम्न अक्षांशों में महासागरों के तापमान की संरचना को सतह से तली की ओर तीन परतों वाली प्रणाली के रूप में समझाया जा सकता है।
- पहली परत गर्म महासागरीय जल की सबसे उफपरी परत होती है जो लगभग 500 मीटर मोटी होती है और इसका तापमान 20°C-25°C के बीच होता है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में, यह परत पूरे वर्ष उपस्थित होती है, जबकि मध्य अक्षांशों में यह केवल
ग्रीष्म ऋतु में विकसित होती है। - दूसरी परत जिसे ताप प्रवणता (थर्मोक्लाईन-Thermocline) परत कहा जाता है, पहली परत के नीचे स्थित होती है। इसमें गहराई के बढ़ने के साथ तापमान में तीव्र गिरावट आती है। यहाँ थर्मोक्लाईन की मोटाई 500-1,000 meter तक होती है।
- तीसरी परत बहुत अधिक ठंडी होती है तथा गभीर महासागरीय तली तक विस्तृत होती है। आर्कटिक और अंटार्कटिक (Arctic & Antarctic) वृत्तों में, सतही जल का तापमान 0°C के निकट होता है, और इसलिए गहराई के साथ तापमान में बहुत कम परिवर्तन होता है। यहाँ ठंडे पानी की केवल एक ही परत पाई जाती है जो सतह से गभीर महासागरीय तली तक विस्तृत होती है।
महासागरों का उच्चतम तापमान सदैव उनकी ऊपरी सतहों पर होता है, क्योंकि वे सूर्य की ऊष्मा को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करते हैं और यह ऊष्मा महासागरों के निचले भागों में संवहन की प्रक्रिया से पारेषित होती है। परिणामस्वरूप गहराई के साथ-साथ तापमान में कमी आने लगती है, लेकिन तापमान के घटने की यह दर सभी जगह समान नहीं होती। 200 मीटर की गहराई तक तापमान बहुत तीव्र गति से गिरता है तथा उसके बाद तापमान के घटने की दर कम होती जाती है।
महासागरों की सतह के जल का औसत तापमान लगभग 27°C होता है, और यह विषवत् वृत्त से ध्रुवो की ओर क्रमिक ढंग से कम होता जाता है। बढ़ते हुए अक्षांशों के साथ तापमान के घटने की दर सामान्यतः प्रति अक्षांश 0.5॰C होती है। औसत तापमान 20 डिग्री अक्षांश पर लगभग 22॰C , 40 डिग्री अक्षांश पर 14॰C तथा ध्रुवो के नजदीक 0॰C होता है। उत्तरी गोलार्ध के महासागरों का तापमान दक्षिणी गोलार्ध की अपेक्षा अधिक होता है। उच्चतम तापमान विषवत् वृत्त पर नहीं बल्कि, इससे कुछ उत्तर की तरफ दर्ज किया जाता है। उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्ध का औसत वार्षिक तापमान क्रमशः 19॰C तथा 16॰C के आस-पास होता है। यह भिन्नता उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्धों में स्थल एवं जल के असमान वितरण के कारणहोती है।
तापमान वितरण को प्रभावित करने वाले कारक
अक्षांश (Latitude) – ध्रुवों की ओर प्रवेशी सौर्य विकिरण की मात्रा घटने के कारण महासागरों के सतही जल का तापमान विषुवत् वृत्त से ध्रुवों की ओर घटता चला जाता है।
स्थल एवं जल का असमान वितरण – उत्तरी गोलार्ध के महासागर दक्षिणी गोलार्ध के महासागरों की अपेक्षा स्थल के बहुत बड़े भाग से जुड़े होने के कारण अधिक मात्रा में ऊष्मा प्राप्त करते हैं।
सनातन पवनें – स्थल से महासागरों की तरफ बहने वाली पवनें महासागरों के सतही गर्म जल को तट से दूर धकेल देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप नीचे का ठंडा जल ऊपर की ओर आ जाता है। परिणामस्वरूप, तापमान में देशांतरीय अंतर आता है। इसके विपरीत, अभितटीय पवनें गर्म जल को तट पर जमा कर देती हैं और इससे तापमान बढ़ जाता है,
महासागरीय धाराएँ (Ocean currents) – गर्म महासागरीय धाराएँ ठंडे क्षेत्रों में तापमान को बढ़ा देती हैं, जबकि ठंडी धाराएँ गर्म महासागरीय क्षेत्रों में तापमान को घटा देती हैं। गल्फ स्ट्रीम (Gulf Stream) गर्म धारा उत्तर अमरीका के पूर्वी तट तथा यूरोप के पश्चिमी तट के तापमान को बढ़ा देती है, जबकि लेब्रोडोर (Labrador) धारा , ठंडी धारा उत्तर अमरीका के उत्तर-पूर्वी तट के नजदीक के तापमान को कम कर देती हैं। ये सभी कारक महासागरीय धाराओं के तापमान को स्थानिक रूप से प्रभावित करते हैं। निम्न अक्षांशों में स्थित परिवेष्ठित समुद्रों का तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा अधिक होता है, जबकि उच्च अक्षांशों में स्थित परिवेष्ठित समुद्रों का तापमान खुले समुद्रों की अपेक्षा कम होता है।
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