बिहार का प्राक्-ऐतिहासिक और ऐतिहासिक काल

बिहार में मानव सभ्यता के इतिहास को मुख्यत: दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

  •  प्राक्-ऐतिहासिक काल
  •  ऐतिहासिक काल

प्राक्-ऐतिहासिक काल

प्राक्-ऐतिहासिक काल से सम्बंधित आदि मानव के निवास के साक्ष्य बिहार के कुछ स्थानों से लगभग 1 लाख वर्ष पूर्व के मिले हैं। ये साक्ष्य पुरापाषाण युग के हैं। जो नालंदा और मुंगेर जिलों में उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। इस काल को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  •  पुरापाषाण युग,
  •  मध्यपाषाण युग,
  •  नवपाषाण युग

पुरापाषाण काल 

इस काल के उपकरण बिहार में नालंदा की जैठियन घाटी, गया की पेमार घाटी, मुंगेर के भीमबाँध और पैसरा, भागलपुर के राजपोखर एवं भालीजोर तथा पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकि नगर से प्राप्त हुए हैं।  इन स्थलों  से प्राप्त पाषाण उपकरण आशुलियन प्रकार के हैं। जिनमे कुल्हाड़ी, अस्क, स्क्रेपर (झुरणक), फलक, छुड़िया, अर्थ चांद्रिक, उत्कीर्णक, छुरी तथा खुरचनी आदि प्रमुख थे।
इन उपकरणों का प्रयोग जानवरों का शिकार करने एवं चमड़ा उतारने के लिए किया जाता था। इस समय मानव घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था तथा प्राकृतिक आवास जैसे पहाड़ी चट्टानों एवं गुफाओं में रहता था।

नवपाषाण काल

नवपाषाण काल में  मानव द्वारा कृषि कार्य प्रारंभ किए जाने के कारण  स्थायी बस्तियों का विकास शुरू हुआ। बिहार में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल वैशाली के चेचर (श्वेतपुर) एवं कुतुबपुर, सारण के चिरौंद, पटना के मनेर, रोहतास के सेनुआर, गया के सोनपुर, ताराडीह एवं केकर में मिले हैं।
सारण के चिरौद से नवपाषाणकालीन अस्थि उपकरण प्राप्त हुए हैं। 1962 ई. में चिरौद में उत्खनन से यहाँ लगभग 2500-1345 ई.पू. के नवपाषाणकालीन अस्थि उपकरण के साथ-साथ काले चित्रित मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं।

ताम्रपाषाण काल

ताम्रपाषाण काल में मानव द्वारा सर्वप्रथम  धातु के रूप में ताँबे का प्रयोग प्रारंभ किया गया । ताँबे का प्रयोग पत्थर के साथ किया गया, इसलिए इस युग को ताम्र-पाषाण युग कहा जाता है। ताम्र-पाषाण कालीन संस्कृति के प्रमाण बिहार के सोनपुर, ताराडीह, मनेर, सैनार, चिरौंद, वैचर तथा आरियप से प्राप्त हुए हैं।

लौह काल

1050 ई.पू. के आसपास गंगा घाटी में अतरंजीखेड़ा (उत्तर-प्रदेश) से लोहा मिलने का प्रमाण मिलता है। इसे उत्तर-वैदिक काल भी कहा जाता है, जिसमें मानवीय बस्तियों का विस्तार गंगा घाटी में उत्तरी विहार तक हो चुका था। इस समय लोहे का प्रयोग मुख्य रूप से औजार निर्माण में किया जाता था। इसी काल में गाँव धीरे-धीरे नगरों में परिवर्तित होने लगे ।

ऐतिहासिक काल

ऐतिहासिक काल में लोहे के प्रयोग में आने से मानव की संस्कृति में व्यापक रूप से परिवर्तन हुआ तथा नई भौतिक संस्कृति का विकास प्रारंभ हुआ।
उत्तर-वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) – वैदिक संस्कृति का विस्तार पूर्वी भारत में उत्तर बिहार तक हुआ। “शतपथ ब्राह्मण” सबसे प्राचीन एवं वृहत  ब्राह्मण ग्रंथ है जिसके रचयिता याज्ञवल्क्य हैं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार आर्यों ने सर्वप्रथम उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रवेश किया। इस समय सरस्वती नदी को सबसे पवित्र नदी मन जाता था तथा इसके तट पर यज्ञ एवं कर्मकांडों का आयोजन किया जाता था। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में माधव विदेह एवं गौतम राहुगाण की कहानी है, जिसके अनुसार माधव विदेह ने ही आर्य संस्कृति का विस्तार उत्तर बिहार तक किया था। गंगा घाटी में पूर्व की ओर आर्यों के प्रसार का एक महत्त्वपूर्ण कारण लौह तकनीकी का विकास तथा कृषि योग्य भूमि थी लोहे के कारण कृषि क्षेत्र में भी विकास हुआ, जिसके कारण प्राचीन बिहार में भी नगरीकरण प्रारंभ हुआ

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