साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की अवधारणा (Imperialism and colonialism)

साम्राज्यवाद (Imperialism)

साम्राज्यवाद वह दृष्टिकोण है जिसके अनुसार कोई महत्त्वाकांक्षी राष्ट्र अपनी शक्ति एवं गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य देशों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है। यह हस्तक्षेप राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या किसी भी अन्य प्रकार का हो सकता है। इसका सबसे प्रत्यक्ष रूप किसी क्षेत्र को अपने राजनीतिक अधिकार में ले लेना एवं उस क्षेत्र के निवासियों को विविध अधिकार से वंचित करना है। देश के नियन्त्रित क्षेत्रों को साम्राज्य कहा जाता है। साम्राज्यवादी नीति के अन्तर्गत एक राष्ट्र राज्य अपनी सीमाओं से बाहर जाकर दूसरे देशों और राज्यों में हस्तक्षेप करता है।

साम्राज्यवाद का विज्ञानसम्मत सिद्धान्त है जिसे लेनिन ने विकसित किया था। 1916 में अपनी पुस्तक ”साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अतिम चरण में लिखा कि साम्राज्यवाद एक निश्चित आर्थिक अवस्था जो पूंजीवाद के चरम विकास के समय उत्पन्न होती है।

चालर्स -ए-बेयर्ड के अनुसार “सम्य राष्ट्र की कमजोर एवं पिछड़े लोगों पर शासन करने की इच्छा व नीति ही साम्राज्यवाद करूलाती है।

उप निवेशवाद (Colonialism) :

उपनिवेशवाद का अर्थ किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किन्तु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना। उपनिवेशवाद में उपनिवेश की जनता एक विदेशी राष्ट्र द्वारा शासित होती है उसे शासन में कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होता।

लैटिन भाषा के शब्द “उप निवेशवाद (Colonialism)” का मतलब है एक ऐसी जायदाद जिसे योजनाबद्ध ढंग से विदेशियों के बीच कायम किया गया हो। इसकी शुरुआत इंग्लैण्ड द्वारा वेल्स एवं आयरलैण्ड से हुयी।

उपनिवेशवादी राष्ट्र यह मान्यता दर्शाते थे कि उपनिवेशवाद अच्छा कार्य है और इससे  वे लोगों को ”सभ्य” बनाते हैं लेकिन वास्तविकता में उपनिवेशवाद का अर्थ था – आधिपत्य, विस्थापन, शोषण, मृत्यु।

यूरोपीय लोगों ने विश्व के अनेक भागों में उपनिवेश बनाये। उस काल में उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण निम्न थे –

  • लाभ कमाने की लालसा
  • मातृदेश की शक्ति बढ़ाना
  •  मातृदेश में सजा से बच जाना
  • स्थानीय लोगों का धर्म बदलवाकर उन्हें ईसाई बना लेना।

साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद में अन्तर

प्रायः साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद दोनों ही शब्दों का प्रयोग एक दुसरे के स्थान पर किया जाता है फिर भी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में स्वरूपगत भिन्नता दिखाई पड़ती है। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद से अधिक जटिल है क्योंकि यह उपनिवेशवाद के अधीन रह रहे मूल निवासियों के जीवन पर गहरा तथा व्यापक प्रभाव डालता है इसमें एक तरफ उपनिवेशी शक्ति के लोगों का, उपनिदेश के लोगों पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक नियन्त्रण होता है तो दूसरी तरफ साम्राज्यिक राज्यों पर राजनीतिक शासन व्यवस्था शामिल होती है। इस तरह साम्राज्यवाद में मूल रूप से राजनैतिक नियन्त्रण व्यवस्था है वहीं उपनिवेशवाद, औपनिवेशिक राज्य के लोगों द्वारा विजित लोगों के जीवन तथा संस्कृति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की व्यवस्था है। साम्राज्यवाद के प्रसार हेतु जहाँ सैनिक शक्ति का प्रयोग और युद्ध प्राय: निश्चित होता है वहीं उपनिवेशवाद में शक्ति का प्रयोग अनिवार्य नहीं है।

नव साम्राज्यवाद

19-20वीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति विशेषकर द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति के बाद अविजित क्षेत्रों पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ जर्मनी, जापान, अमेरिका इत्यादि राष्ट्रों का साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा में शामिल होना।

नव-उपनिवेशवाद

प्रायः 1945 के पश्चात् नव स्वतन्त्र राष्ट्रों को आर्थिक नीतियों पर IMF, World Bank एवं साम्राज्यवादी शक्तियों का दबाव देखा गया इन अर्थों में नव उपनिवेशवाद शब्द का प्रयोग किया गया।

साम्राज्यवाद / उपनिवेशवाद के प्रेरक तत्व

धर्मप्रचारकों तथा साहसिकों की आवश्यकताएँ :-

कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट मिशनों (Catholic and Protestant missions) द्वारा दूर दराज के स्थानों पर धर्मप्रचारकों की टोलियाँ भेजी जाती थी, स्थानीय लोगों ने  झड़पों के कारण पादरी मारे जाते जब यह खबरे तार द्वारा मूल देश में पहुँचती तो देश के लोग सजा देने हेतु शोरगुल करते जैसे जर्मनी के दो पादरी चीन में मारे गये तो कुछ इस तरह की बातें हुयी।

यूरोपीय लोग वैज्ञानिक खोज, खनिज, ज्योतिष, शिकार, पर्यटन हेतु इन देशों में जाते तब उनका सोचना था कि वे स्वतन्त्र है और कहीं भी जाना उनका जन्म सिद्ध अधिकार है उनकी दृष्टि में पीले, भूरे और काले लोग असभ्यों से ज्यादा कुछ नहीं थे।

आवश्यक वस्तु एवं बाजार की आवश्यकता :-

 यूरोपीय लोगों को आम जरूरतों की चीजों की आपूर्ति गैर-यूरोपीय देशों से ही की जा सकती थी जैसे चाय, कॉफी, पटसन, मसाले, रबड़ इत्यादि। औद्योगिक देशों में बनाये हुए माल की बिक्री के लिए विश्व-व्यापक बाजार भी जरूरी था। साम्राज्यवाद के हिमायती नये बाजारों की खोज की आवश्यकता पर बल देते थे।

अतिरिक्त पूँजी की आवश्यकता :-

 औद्योगिकरण के कारण इन देशों का विकास हुआ और यह विकसित राष्ट्र बन गये। 19वीं सदी के अन्तिम दशकों में विकसित देशों में पूंजी निवेश के अवसर कम होने लगे तथा आय कम होने लग गयी इसकी तुलना में पिछड़े इलाकों या क्षेत्रों में पूँजी लगाने के लगभग असीमित अवसर थे, इन इलाकों में मनमानी शर्ते लादकर कहीं अधिक आय प्राप्त की जा सकती थी। इसके अलावा इन देशों का सस्ता श्रम, विदेशी माल की मॉग ने भी साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद को प्रेरित किया।

आबादी और शक्ति संतुलन की समस्या :- 

यूरोपीय देशों की बढ़ती आबादी के लिए बसने हेतु नए स्थान चाहिए था इस कारण भी उपनिवेश बनाए गए। जैसे-  आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, द. अफ्रीका इत्यादि।

प्रतिष्ठा प्राप्ति :-

 उपनिवेश या प्रशासित क्षेत्रों का विस्तार शक्तिशाली औद्योगिक राष्ट्रों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। संसार में विस्तृत भू-भाग का अधिपति होना महत्ता को निशानी अथवा महाशक्ति होने का प्रमाण समझा जाने लगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Latest from Blog

UKSSSC Forest SI Exam Answer Key: 11 June 2023

उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा आयोग (Uttarakhand Public Service Commission) द्वारा 11 June 2023 को UKPSC Forest SI Exam परीक्षा का आयोजन…